आज इस 21वीं सदी में हम नदियों को मां कहते ज़रूर हैं, लेकिन नदियों को मां मानने का हमारा व्यवहार सिर्फ नदियों की पूजा मात्र तक सीमित है। बकौल जलपुरुष श्री राजेन्द्र सिंह जी, असल व्यवहार में हमने नदियों को कचरा और मल ढोने वाली मालगाड़ी मान लिया है। यदि यह असभ्यता है तो ऐेसे में क्या स्वयं को सभ्य कहने वाली सज्जन शक्तियों का यह दायित्व नहीं कि वे खुद समझें और अन्य को समझायें कि वे क्या निर्देश थे, जिन्हे व्यवहार में उतारकर भारत अब तक अपनी प्रकृति और पारिस्थितिकी को समृद्ध रख सका ? हमारे व्यवहार में आये वे क्या परिवर्तन हैं, जिन्हे सुधारकर ही हम अपने से रूठती प्रकृति को मनाने की वैज्ञानिक पहल कर सकते हैं ?
मेरा मानना है कि बुनियादी तौर पर इसे समझना और समझाना, सबसे पहले मेरी उम्र की पीढ़ी का दायित्व है, जो खासकर 20वीं सदी के अंत और 21वीं सदी के प्रारम्भ में पैदा हुई संतानों को उतनी सुरक्षित और सुंदर पारिस्थितिकी सौंपने में विफल रही है, जितनी हमारे पुरखों ने हमें सौंपी थी। समझने और समझाने की इस कोशिश को मेरी पीढ़ी के लिए एक ज़रूरी प्रायश्चित मानते हुए मैं इसे कागज़ पर उतार रहा हूं। ’भारतीय संस्कृति में नदी: विज्ञान व व्यवहार’ पुस्तक इसी दिशा में उठा लेखक का प्रथम कदम है।